यात्रा वृत्तांत
21 सितंबर को अपने एक मित्र के साथ पुणे से दिल्ली पहुंच कर वहां एक कार किराए पर ले ली. हम लोग अगले 15 दिन उस कार से घूमने वाले थे और पहाड़ी इलाकों में मजबूत और भरोसे की कार चाहिए होती है इसलिए हमने महिंद्रा की गाड़ी ली थी.
22 तारीख को को लगभग 10:00 बजे दिल्ली से निकलकर पूर्व की ओर बढ़ने वाले महामार्ग पर आगे बढ़ते हुए नोएडा गाजियाबाद और हापुड़ बायपास से आगे बढ़कर हम लोग गढ़मुक्तेश्वर पहुंचे. यहां गंगा नदी पर बना हुआ पुल पार करते हुए इस महान नदी के विशाल प्रवाह को देखने का अवसर प्राप्त हुआ. पिछले कुछ दिनों में पहाड़ी तथा मैदानी इलाकों में अत्यधिक वर्षा होने के कारण गंगा नदी में जल का स्तर पुल से मात्र कुछ फीट की नीचे था.
वहां से आगे बढ़ते हुए मुरादाबाद तथा रामपुर पार करते हुए हम लोग काशीपुर पहुंचे और रात्रि विश्राम की व्यवस्था की.
23 तारीख को काशीपुर से सुबह जल्दी निकलना जरूरी था क्योंकि हमें काफी दूर पहुंचना था और आज रात का हमारा गंतव्य रहने वाला था पिथौरागढ़ जिले का एक सीमावर्ती गांव धारचूला. वैसे तो काशीपुर से धारचूला की दूरी 385 किलोमीटर है लेकिन पहाड़ी इलाकों में अनेक अनिश्चितता होती है और निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि 1 दिन में इतनी दूरी तय हो पाएगी या नहीं. पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए सितारगंज रुद्रपुर और उसके बाद उत्तर प्रदेश से हमने उत्तराखंड में प्रवेश किया तथा पिथौरागढ़ जिले के टनकपुर गांव पहुंचे. यहां से मैदानी इलाका समाप्त हो जाता है और हमारे आगे उत्तर दिशा में महान हिमालय का आरंभ होता है और लगातार चढ़ाई चढ़ते हुए हम चंपावत पहुंचते हैं.
इस बीच में हमारी कार का 1 टायर पंचर भी होता है लेकिन प्रभु कृपा से जल्दी ही हमें एक दुकान मिल जाती है जहां पर मात्र ₹50 में सुधार का काम भी हो जाता है और हम आगे बढ़ते हैं. इस समय तक दोपहर के 1:00 बज चुके हैं और हमें यहां से आगे पिथौरागढ़ तथा वहां से और आगे धारचूला तक पहुंचना है और पहाड़ों में देर दोपहर के बाद यात्रा करना सुरक्षित नहीं होता इसलिए हम सभी थोड़े से चिंतित थे कि क्या दिन के अंत तक धारचूला पहुंच पाएंगे?
लगातार बारिश और उसके कारण होने वाले भूस्खलन तथा स्रोतों की कमी इत्यादि कारणों से रास्तों की परिस्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है और अनेक गड्ढे कंकड़ नुकीले और साथ में या तो बहुत सारी धूल या अत्यधिक कीचड़ से भरा हुआ मार्ग हम लोगों को और अधिक ऊंचाई की ओर लेकर पिथौरागढ़ से आगे पहुंचाता है जहां जौलजीबी नाम का एक गांव है. इस गांव की पहली खासियत है कि यहां पर दो नदियों का संगम है जिनके नाम हैं गौरी गंगा और काली नदी. कई लोग मजाक में कहते हैं कि यहां पर काली और गोरी का संगम है. इस गांव की दूसरी खासियत है कि यहां से पूर्व दिशा में आगे लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर तक ओम पर्वत की दिशा में नेपाल की सीमा हमारे साथ साथ लगी हुई रहेगी. पूर्व दिशा में काली नदी और उसके पूर्व में नेपाल.
यहां से धारचूला मात्र 1 घंटे में पहुंचकर रात्रि विश्राम की व्यवस्था की. संयोग कुछ ऐसा हुआ कि पर्यटन निगम के रेस्ट हाउस में हमारे पहुंचने के ठीक पहले ही एक बड़ा ग्रुप पहुंच गया जिसके कारण सारे कमरे बुक हो गए थे. हम लोगों ने दूसरा होटल ढूंढ लिया.
धारचूला की एक अत्यंत विशेष बात यह है कि इसके पूर्व दिशा में काली नदी की दूसरी और नेपाल का गांव दार्चुला है. ऐसा कहा जा सकता है कि यह जुड़वा गांव है और इनके नामों में बस थोड़ा सा ही अंतर है लेकिन अलग-अलग राष्ट्रों में यह स्थित है. अगले दिन सुबह 7:00 बजे इन दोनों गांवों को जोड़ने वाला काली नदी के ऊपर बना हुआ लोहे का पुल सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने खोला और हम उसे पार करके नेपाल में नाश्ता करने गए. आधार कार्ड दिखाना एवं मास्क लगाना आवश्यक होता है. मात्र 2 मिनट में अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करके नाश्ते के लिए नेपाल में जाना एक अत्यंत रोमांचक अनुभव था.
सीमावर्ती इलाका होने के कारण धारचूला से आगे जाने के लिए इनर लाइन परमिट आवश्यक होता है जो कि मजिस्ट्रेट कार्यालय द्वारा दिया जाता है और आगे के मार्ग पर जगह-जगह पर सेना के जवान उसको चेक करते हैं. इस परमिट के लिए हमारा अगला दिन सुनिश्चित था और सुबह से ही फोटोकॉपी फोटोग्राफ तथा आवेदन पत्र इत्यादि होने के बाद अस्पताल में जाकर कोरोना का टेस्ट करवा कर उसका प्रमाण पत्र भी संलग्न करके कागजी कार्यवाही पूरी की. दुर्भाग्यवश देर शाम तक परमिट नहीं मिल पाया और हम लोग चिंतित थे कि जब तक परमिट नहीं मिलेगा तब तक आगे की यात्रा की व्यवस्था करना संभव नहीं हो पाएगा परंतु ऐसा लगा कि किसी दैवीय शक्ति के कारण एक नई ऊर्जा का संचार हुआ और मैंने और मेरे मित्र ने अथक परिश्रम से तहसीलदार कार्यालय में जाकर विभिन्न व्यक्तियों से एवं उनके घरों में जाकर उनके परिवार के लोगों से भेंट करके काफी प्रयत्न किए और अंततः रात को 9:30 बजे परमिट मिल गया.
अगले दिन 25 सितंबर को सुबह धीरेंद्र सोनाल की महिंद्रा बोलेरो हम लोगों ने ₹40000 में बुक कर ली जिसमें धारचूला से ओम पर्वत तथा आदि कैलाश जाकर वापस आना तय हो गया था. सुनने में यह राशि मात्र 4 दिनों के लिए अधिक लगती है लेकिन आगे का मार्ग अत्यंत कठिन एवं समुद्र तल से ऊंचाई अत्यधिक होने के कारण मुझे अंत में लगता है कि यह ठीक ही था. हम लोग 6 लोगों का एक ग्रुप बन गया था इसलिए कुल राशि सभी लोगों में बराबरी से विभाजित हो गई थी
धारचूला से आगे बढ़ते हुए हम लोगों का कार्यक्रम उस दिन 80 किलोमीटर की दूरी तय करके गूंजी नाम के गांव में पहुंचने का था और पहाड़ों में इस तरह की दूरी तय करने में साधारण रूप से 7 से 8 घंटे लग सकते हैं इसलिए हम लोग 8:00 बजे धारचूला छोड़ चुके थे.
परंतु 3 घंटे में मात्र 35 किलोमीटर की यात्रा करने के बाद गरबाधार नाम के गांव के पास आ करके हमने देखा कि भूस्खलन के कारण रास्ता बंद है. दरअसल यहां पर एक पहाड़ को काटकर रास्ता नीचे काली नदी के किनारे से तेजी से ऊपर की ओर उठता है और इसमें 6 यू टर्न है. पूरा रास्ता कच्चा और मलबे से भरा हुआ है और लगातार बारिश होने के कारण ऊपर से पत्थर नीचे आते रहते हैं और लगातार मशीनें उनको साफ करती रहती हैं ताकि रास्ता खुला रहे.
6 यू-टर्न होने के कारण अगर सबसे ऊपर पत्थर गिर जाए तो वह नीचे तक के पूरे मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं. यही कुछ उस दिन हो रहा था.
दोपहर में करीब 12:30 बजे हम लोगों को ड्राइवर धीरेंद्र ने बताया कि आप लोग पैदल मार्ग से पहाड़ के ऊपर पहुंच जाइए और वहां पर भोजन की व्यवस्था है उसका लाभ उठाइए बाद में दोपहर को रास्ता खुलने पर मैं गाड़ी लेकर ऊपर आ जाऊंगा.
हम सभी 6 यात्री अत्यधिक कीचड़ में पत्थरों के ऊपर से किसी प्रकार से अपने छोटे बैग ढोकर आगे बढ़ते हुए पहाड़ के ऊपर पहुंच गए. पहाड़ों में गरिष्ठ भोजन की कल्पना भी गलत है और कई बार तो सिर्फ सादा चावल और अचार मिल जाए तो भी उसे प्रभु की कृपा मानना चाहिए. सभी यात्री वहां पर भोजन के लिए बैठ गए परंतु मुझे लगा कि लगभग 1 किलोमीटर आगे कुछ अलग सी जगह दिख रही है जहां पर शायद कुछ और भोजन से संबंधित विकल्प उपलब्ध होंगे इसलिए मैं और मेरा मित्र अतुल पैदल ही वहां गए और जाकर के पता चला कि वास्तव में वह सीमा सड़क संगठन के मजदूरों एवं कर्मचारियों के लिए बनाया हुआ लेबर कैंप है जहां पर तीन छोटे-छोटे कमरों में बिछाए हुए पलंग उनके सोने की व्यवस्था है तथा एक छोटी सी किचन है जहां उनका खाना बनता है.
वहां पर एक कर्मचारी हमें मिला. आश्चर्य की बात यह है कि वह स्वयं बोला कि थोड़ी ही देर पहले खानसामा यहां से नीचे की तरफ कुछ सामान लाने गया है और बोल कर गया है कि अतिथि आएंगे जिनके लिए भोजन किचन में तैयार है. हम दोनों मित्र चमत्कृत हो गए और देखा कि वास्तव में किचन में हमारे लिए रोटी चावल दाल और अचार रखा हुआ है. मैंने वास्तव में जीवन में बहुत कम बार किसी तरह के भोजन को इतना अधिक स्वाद के साथ मजे लेकर खाया है.
उसके बाद हम लोग वापस उस जगह पर गए जहां मशीनें रास्ता साफ कर रही थी परंतु अंधेरा घिर आया था और शाम के 7:00 बजे ऐसा लगने लगा कि अब रास्ता रात भर बंद ही रहेगा तो हम सभी ने निर्णय लिया और फिर से सीमा सड़क संगठन के लिए कैंप में जाकर के वहां के कर्मचारियों से मुलाकात की और उन्होंने अत्यंत आत्मीयता से हम लोगों का स्वागत किया तथा रात्रि विश्राम तथा रात्रि भोजन की व्यवस्था भी कर दी.
अगले दिन मौसम काफी साफ था और रास्ता खुल जाने के बाद हम लोग लगभग 10:00 बजे वहां से आगे बढ़े और गर्बाधार के बाद छंकन गांव पहुंचे
पहाड़ों में लगभग हर जगह मैगी के नूडल्स मिल जाते हैं और स्वाद में अच्छे तथा बनाने में आसान होने के कारण काफी प्रचलित है.
वहां से आगे हम लोग मालपा गांव पहुंचे. इस स्थान का महत्व यह है कि आज से लगभग 25 साल पहले 1996 / 1997 में अगस्त के महीने में अत्यधिक भूस्खलन होने के कारण पूरा पर्वत ही नीचे आ गया था और अपने साथ मलबा पूरे गांव को ही लेकर नदी में उतर गया था. अत्यंत ह्रदय विदारक घटना थी क्योंकि उस समय गांव में रात्रि विश्राम के लिए कैलाश मानसरोवर यात्रा के पद यात्री थे और किसी भी प्रकार का कोई भी संपर्क अथवा फोन अथवा सेटेलाइट उपलब्ध न होने के कारण लंबे समय तक किसी भी प्रकार की कोई भी सहायता उपलब्ध नहीं हो पाई थी.
इसके बाद आता है गांव बूदी.
पुराने जमाने में पदयात्री इस गांव में अपना राशन इत्यादि भर लेते थे क्योंकि इसके बाद अत्यंत खड़ी चढ़ाई ले करके हमें जाती है गांव छियालेख. यहां भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस का कैंप है और वह हमारे कागजात चेक करके हमें वहां से आगे गर्ब्यांग जाने की अनुमति देते हैं.
हमारे साथ काली नदी लगातार पूर्व दिशा में बह रही है और नेपाल के पहाड़ हमें देखते रहे हैं. वातावरण में ठंडक बढ़ गई है और ऊंचे ऊंचे पेड़ों की जगह अब कुछ झाड़ियों ने ले ली है पहाड़ों का रंग भी हरे से बदलकर कुछ कुछ भूरापन लिया हुआ दिखता है.
गहरी घाटियों में से दोनों तरफ से ऊंचे पर्वतों से गिरे हुए हमारा कच्चा रास्ता हमें यहां से आगे लेकर जाता है और थोड़ी देर के बाद हमें गूंजी गांव के टिमटिमाते हुए बल्बों की रोशनी दिखी. अंग्रेजी के टी अक्षर के आकार की घाटी में बसा हुआ या गांव दरअसल में पुराने जमाने का व्यापार का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था लेकिन अब भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस का बहुत बड़ा कैंप नदी के किनारे दिखाई देता है.
यहां भी हमारे लिए होमस्टे की व्यवस्था की गई थी जिसका मतलब है कि यही के परिवार ने अपने घर में जगह दी और उन्हीं की रसोई में बना हुआ स्थानीय लोगों द्वारा खाया जाने वाला भोजन हमें दिया गया जिसमें मूल रूप से आलू की सब्जी और रोटी के साथ नींबू का अचार था.
पूर्णिमा के बाद मात्र कुछ ही दिन हुए थे इसलिए चंद्र दर्शन के बाद सभी और से हिम आच्छादित पर्वतों पर पड़ने वाला प्रकाश अत्यंत सुंदर अनुभव दे रहा था.
प्रातः काल में नित्य कर्म से निवृत्त होकर हमें 6:00 बजे आगे की ओर यात्रा करनी थी.
गूंजी से दाएं और जाने वाला मार्ग कालापानी नाम के गांव से आगे बढ़ते हुए नाभीदांग पर्वत के पास से ओम पर्वत के दर्शन स्थान तक पहुंचता है. यहां से आगे यही मार्ग लिपुलेख दर्रा तक जाता है जिसके दूसरी ओर तिब्बत है. सुबह जल्दी प्रस्थान करने से हमें यह साफ हुआ कि पर्वतों पर बादल नहीं थे और मौसम साफ होने के कारण ओम पर्वत के अत्यंत शुभ दर्शन हुए और मन प्रफुल्लित हो गया.
यहां से नाग पर्वत तथा त्रिशूल पर्वत के भी अत्यंत शुभ दर्शन हुए. ऐसा लग रहा था कि अत्यधिक ऊर्जावान स्थान पर हम लोग हैं और एक विशेष कृपा का अनुभव हो रहा था. मेरा ऐसा मानना है कि इस प्रकार की विशेष कृपा किसी भी धर्म जाति राष्ट्र उपजाति सभी से भिन्न होती है.
वहां के सीमा के जवानों ने हमें उस स्थान के बारे में जानकारी दी. काफी फोटो तथा वीडियो लेने के बाद हम लोग वहां से गूंजी की ओर वापस आए. दोपहर का भोजन होने के बाद गूंजी से दूसरी ओर यानी बाई तरफ आगे बढ़े जहां पहला गांव आता है नाभि. यहां पर वाई-फाई की सुविधा होने के कारण अपने घर पर फोन करके परिजनों को कुशलता के समाचार देने का अवसर मिलता है.
यहां से थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो ऊंचे ऊंचे पर्वतों के नीचे छुपा हुआ एक गांव रोंगकांग दिखता है. कभी-कभी मैं सोचता हूं कि मनुष्य का बनाया हुआ शहर हॉन्ग कोंग अलग ही तरह से सुसज्जित है परंतु सुदूर हिमालय में एक छोटा सा गांव जो सभी ओर से अत्यंत कठिन पर्वतों से घिरा हुआ है परंतु उसका नाम लगभग समान ही है अपने आप में अलग ही सौंदर्य की छटा है.
यहां से आगे कुटी नाम का गांव आता है जहां चाय इत्यादि के लिए हम रुकते हैं. रास्ते की हालत अत्यंत खराब होने के कारण बड़े-बड़े पत्थर और लगातार झरनों से बहकर आने वाले पानी की धाराओं से हम लोगों को निकलना पड़ रहा होता है जिसमें एक बार हमारी गाड़ी फंस भी गई परंतु एक बार फिर चमत्कारी रूप से हमे सहायता मिल गई और हम लोग वहां से आगे बढ़ सके.
इस मार्ग का आखिरी पड़ाव जोलिंग कॉन्ग नाम का एक गांव है. मूल रूप से यह भी एक भारतीय सेना का कैंप है परंतु आदि कैलाश यात्रा पर आने वाले यात्रियों के लिए टेंट तथा फाइबर के बने हुए कमरों की व्यवस्था की गई है. देर शाम को वहां पहुंचकर लगभग 0 डिग्री तापमान में भी हम लोगों के अंदर इतना उत्साह था कि हम लोग वहां से लगभग 1 किलोमीटर तक आगे पैदल चलकर गए और चंद्रोदय के समय पढ़ने वाले अद्भुत प्रकाश में चमकते हुए आदि कैलाश पर्वत के दर्शनों का लाभ लिया.
अगले दिन सूर्योदय से पहले ही हम लोग आदि कैलाश की ओर गए और वहां के शिव मंदिर के पास की एक छोटी सी पहाड़ी के ऊपर बैठकर पर्वत के शिखर पर आने वाली सूर्य की पहली किरणों के दर्शनों का लाभ लिया. अत्यंत शांत प्रातः कालीन वायु में विचारों का प्रवाह मानो सबकुछ पवित्र बना रहा था. सूर्य के गिरने अब शिखर से उतर कर पर्वत के मध्य भाग में बने हुए गौरीकुंड पर आने लगी थी और थोड़ी देर के बाद तो तेज गति से नीचे आती हुई सूर्य की किरणें तलहटी तक आकर के पूरे पर्वत को ही प्रकाशमान कर चुकी थी
भौतिक दृष्टिकोण से देखें तो यह एक पर्वत श्रंखला ही है जिसमें अनेक पर्वत हैं और उनके हिम अच्छादित शिखर हैं परंतु जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जिनमें हमारा दृष्टिकोण भिन्न होता है और ऊर्जा का प्रवाह स्पष्ट रूप से स्मृति पटल पर अंकित हो जाता है. उस रात भोजन के उपरांत कड़कड़ाती ठंड होने के बाद भी मैंने काफी देर तक आदि कैलाश और उसके पीछे दक्षिण दिशा की ओर फैले हुए बादलों में होने वाले लगातार होने वाली बिजली की गड़गड़ाहट को निरंतर देखा और इस अद्भुत अनुभव का आनंद लिया
अत्यंत अद्भुत सूर्योदय से प्रेरणा लेकर मैंने वहां से आगे पैदल मार्ग से पार्वती कुंड जाने का निर्णय लिया जो कि लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर है और अत्यधिक ऊंचाई पर होने के कारण लगभग 1 घंटे का समय लगता है. मूल रूप से एक ग्लेशियर से बहकर आने वाले पानी से बनने वाला यह कुंड अंततः एक नदी को जन्म देता है जो आदि कैलाश से पूर्व की ओर बहते हुए अंततः काली नदी में मिल जाती है.
अत्यंत पुण्य दर्शन होने के बाद वहां से हम लोग धारचूला वापस आने के लिए निकले परंतु दूरी बहुत ज्यादा होने के कारण देर शाम तक भी नहीं पहुंच पाए और इस बीच लगातार बारिश होने के कारण कच्चे रास्तों पर आने वाले मलबे की वजह से हमारी गति भी कम हो गई थी.
धारचूला से लगभग 40 किलोमीटर पहले अचानक गाड़ी की क्लच केबल टूट गई और गाड़ी रुक गई परंतु जैसा कि मैंने अनेक स्थानों पर कहा है कि किसी दैवीय चमत्कार से हम लोगों को प्रेरणा मिली और दो लोगों ने गाड़ी को धक्का दिया और किसी प्रकार से गाड़ी फर्स्ट गियर में चालू हो गई और हम लोग उसमें कूद कर बैठ गए और कई किलोमीटर तक फर्स्ट गियर में ही गाड़ी चलती रही. मानो सब कुछ चमत्कारी ही था क्योंकि हम फिर से सीमा सड़क संगठन के कैंप में पहुंच चुके थे और वहां पर हमें गरमा गरम भोजन तो मिला ही साथ ही साथ उन्होंने आग्रह किया कि रात्रि विश्राम के लिए हम लोग वहीं रुक जाएं लेकिन वहां के मैकेनिक ने कुछ ही देर में हमारी गाड़ी का केबल ठीक कर दिया और हम लोग वहां से आगे बढ़ सके और अंततः रात को 11:00 बजे धारचूला पहुंचे.
किसी भी प्रकार के भारतीय फोन नेटवर्क वहां काम नहीं करते हैं लेकिन मेरे फोन में नेपाल का नेटवर्क काम कर रहा था जिसके कारण मैं धारचूला के होटल के मालिक को एक मैसेज भेज पाया था जिसके कारण हमारे पूरे ग्रुप के लिए एकमात्र रूम उपलब्ध था जिसमें हम लोगों की रात्रि विश्राम की व्यवस्था की गई थी. इतने छोटे गांव में किसी के द्वारा अत्यंत आत्मीयता के साथ की जाने वाली ऐसी व्यवस्था किसी चमत्कार से कम नहीं है. शहरों में रहने के बाद कई बार ऐसा आभास होता है कि हम पैसे से सब कुछ खरीद सकते हैं परंतु पर्वतों में जाकर कुछ और ही अनुभव होते हैं
अगले दिन धारचूला से आगे हम मुनस्यारी की ओर बढ़े जो कि मिलम ग्लेशियर की ओर जाने के लिए बेस कैंप का गांव है. लगभग 8000 फीट की ऊंचाई पर बसा हुआ यह स्थान पंचचूली पर्वत श्रंखला के अत्यंत सुंदर दर्शनों के लिए प्रसिद्ध है.
यहां पर कुछ दिन बिताने के बाद हम यहां से आगे पाताल भुवनेश्वर की ओर बढ़े जहां पर जमीन से लगभग 30 मीटर नीचे अत्यंत मार्ग से गहराई में उतरने के बाद लगभग 100 मीटर लंबी एक ऐसी गुफा है जिसमें महादेव के विभिन्न जीवन दर्शन से संबंधित विषय अत्यंत प्राकृतिक रूप से उपलब्ध हैं.
सकरी तथा अंधेरे से भरी हुई जगहों के बारे में मेरे मन में पहले से ही काफी भय रहा है परंतु किसी चमत्कारी प्रेरणा के कारण लोहे की चैन को पकड़कर अत्यंत फिसलन भरे पत्थरों पर पैर रखकर अंधेरे मार्ग से मैं अपने ग्रुप के साथ नीचे उतरा और ऑक्सीजन की कमी होने के कारण सांस लेने में होने वाली तकलीफ होने के बाद भी पूरी गुफा में विभिन्न स्थानों पर जाकर के दर्शनों का लाभ उठाया. यहां प्राकृतिक तरीके से पत्थरों के विभिन्न आकारों में शिवजी की जटाएं तथा श्री गणेश का काटा हुआ धड़ साथ ही अमृत कुंड जैसे विभिन्न स्थान है. सभी और गहरा अंधकार है और छोटे छोटे बल्ब हमारे मार्ग प्रज्वलित करते हैं. परंतु ऑक्सीजन की कमी होने के कारण सांस लेना अत्यधिक कठिन होता है.
पाताल भुवनेश्वर के दर्शनों के बाद ऐसा लगा मानो हमारी ओम पर्वत तथा आदि कैलाश की यात्रा को संपन्न करने का इससे अच्छा अनुभव नहीं हो सकता था.
वहां से हम आगे बढ़कर अल्मोड़ा भीमताल नैनीताल इत्यादि स्थानों से आगे बढ़ते हुए अंततः रामपुर मुरादाबाद और गढ़मुक्तेश्वर में गंगा नदी को पार करके दिल्ली तक की यात्रा की और फिर अपने गंतव्य पुणे पहुंच गए.
आज 8 अक्टूबर को पुणे में अपने घर पर बैठकर इस पूरे यात्रा वृतांत को फिर से शब्दों के माध्यम से लिख पाने के कारण एक जीवंत अनुभव हुआ.
मुझे लगता है कि मेरे पूर्वजों के आशीर्वाद और शुभचिंतकों की सदिच्छा की वजह से ही यह यात्रा ना केवल सफल रही बल्कि सुखद भी रही. मार्ग में अनेक परिस्थितियां निर्मित हुई परंतु उनमें से कोई भी कठिनाई के तौर पर नहीं लगी.
ईश्वर सभी को ऐसी शक्ति दे कि हर परिस्थिति का सामना किया जा सके.
हर हर महादेव 🙏🏻